लड़कियों की दिल दहला देने वाली कहानी :

 कहानी


लड़कियों की दिल दहला देने वाली कहानी :


                                                            लो मम्मी, जल्दी से बताओ, पूरी को कितनी पतली बेलते हैं?" “कौन बना रहा है पूरी, तुम.. ?” मानसी ने विस्मय से अपने बेटे अनुज से पूछा, तो वह कहने लगा, “हां, मैं और शैली मिलकर बना रहे हैं.” "ओह! ठीक है, रोटी जैसी बेल लो या थोड़ा उससे मोटी भी चलेगी. और हां, तेज़ आंच में ही फूलती है. फिर मध्यम कर लेना और सुनो, ज़रा ध्यान रखना, हाथ नहीं जला लेना तुम लोग... '“हां, वो और उसके पड़ोस में रहनेवाली उसकी ऑफिस कलीग शैली है, साथ मिलकर बना रहे हैं. आजकल दिन का खाना उसके घर और रात का शैली के घर बनता है..." कहकर मानसी ने गहरी सांस लेकर घड़ी देखी, साढ़े सात बज गए थे. आज इतनी जल्दी खाना बन रहा है... कहीं दोपहर का लंच मिस तो नहीं कर दिया... पूरी बन रही है, पर खाएंगे किससे ... सब्ज़ी बनाई है या फिर अचार से... अचार तो अनुज बिल्कुल नहीं खाता. "क्या सोचने लगी तुम, कर लेंगे. ये आज के बच्चे हैं." जय के कहने पर भी वह "हां-हां मम्मी, चिंता न करो. सब कर लेंगे...” कहते हुए अनुज ने फोन काट दिया, तो जय हंसते हुए बोले, “क्या हुआ आज पूरी बिना कोई प्रतिक्रिया दिए वर्तमान की विषम बना रहा है क्या?” परिस्थितियों के चिंतन में लीन हो गई.

बेंगलुरु की एक आईटी कंपनी में उसका बेटा अनुज जॉब करता है. एक सोसाइटी में वन बेडरूम फ्लैट लिया है. घर की साफ़-सफाई और खाने के लिए मेड को रखा था, जो कोरोना संकट के चलते अब घर बैठ गई है. अभी तक वह मेड, जिसे अनुज 'अक्का' कहता है, के रहते उसके खाने-पीने को लेकर निश्चिन्त थी. कोरोना ने पैर पसारने शुरू किए, तो उसकी सोसाइटी में सभी ने मेड को आने से मना कर दिया, पर अनुज ने अपनी मेड यानी अक्का को आने से मना नहीं किया... बिना अक्का के घर की व्यवस्था के चरमराने की कल्पना ही होश उड़ाने को काफ़ी थी. पर कोरोना काल में उसका आना ख़तरे से खाली भी नहीं था. एक लड़का खाना कैसे बनाएगा...? घर कैसे साफ़ करेगा...?? ये सोचकर कुछ दिन तो इस रिस्क से समझौता किया गया... फोन पर जब भी अनुज से बात होती, वह एक ही बात कहती, “अपनी अक्का को आते ही सैनिटाइज़र दिया करो. उससे कहो, हाथ धोकर खाना बनाए..." रोज़-रोज़ एक ही बात सुन-सुनकर वह चिढ़ जाता. "क्या मम्मी, रोज़ ही एक बात करती हो...”

पर वह उसे समझाना नहीं छोड़ती. जय कहते, “बार-बार कहने से कोई फ़ायदा नहीं है. समझदार है, कर लेगा सब .... या तो उसकी अक्का पर भरोसा करो और अगर इतना वहम है, तो कह दो कि वो उसे हटा दे. आख़िर तुम भी तो अपने आप ही सब कर रही हो...'

जय के लिए ये कहना आसान था, पर वह जानती थी कि ऐसे समय में अनुज के लिए घर का भार अक्का पर छोड़ना और अक्का को छोड़ना दोनों ही परिस्थितियों में एक तरफ़ कुआं, तो दूसरी और खाई जैसी स्थिति थी.

वह जानती है कि अनुज उस कार्यकुशलता से घरेलू काम नहीं कर पाएगा, जैसे वह कर लेती है, क्योंकि उसे इन कामों को करने की आदत नहीं है. हालांकि घरेलू सहायिका पर वो भी निर्भर ज़रूर थी, पर उसके न आ पाने की स्थिति में उसने मानसिक रूप से ख़ुद को तैयार किया और आज वह अपने घर

को बिना किसी बाहरी की मदद लिए बख़ूबी उससे चाय बनाने को कहती.... दो कप चाय संभाल रही है. का अनुपात उसने अपने मस्तिष्क में भली प्रकार से बिठा लिया. वह दो कप चाय बहुत अच्छी बना लेता था.

और संभाल इसलिए पा रही है, क्योंकि उसने ये काम पहले भी किए हैं. पर अनुज ने ऐसे काम कभी किए ही नहीं... ऐसे में उससे क्या उम्मीद की जाए. क्या उसकी असफलता का दोष वह जेंडर को ही दे ? क्या एक स्त्री होने के नाते ही वह घरेलू काम कर पाती है... और पुरुष होने के नाते अनुज को काम करने में तकलीफ़ हो रही है... ? नहीं बेशक यहां जेंडर मसला नहीं है, मसला है आदत... उसे आदत थी, इसलिए बर्तन मांजना, कपड़े धोना, खाना बनाना, साफ़-सफ़ाई इत्यादि कार्य सुगमता से हो जाते हैं.

काश! अनुज को भी इसकी आदत होती, पर आदत कैसे होती? क्या सोचकर वह उसे ये सब काम सिखाती...?

"अरे, तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है... बहुत बढ़िया बनी है बिल्कुल अनुज के हाथों जैसी..."

एक दिन उनकी ननद आई, तब अनुज तीन कप चाय बनाई... उसका चाय बनाने का अंदाज़ सबसे अलहदा था. दो कप चाय के अनुपात के आधार पर दो-दो कप चाय दो बार में बनाई और तीन कप में छानकर एक कप फेंक दी. उसको ऐसा करते देख जय ख़ूब हंसे और कहने लगे, "चाय बनाने का पाठ सिखाया नहीं गया है, रटाया गया है.... इसीलिए दो कप चाय ही सही बनती है. दो कप चाय से इतर संख्या में चाय बनवाना महंगा पड़ेगा... एक कप चाय बनाने को कहोगे, तो भी ये दो कप ही बनाएगा और एक कप की चाय फेंक देगा...."

हंसी-मज़ाक के वातावरण में जीजी ने अनुज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “चाय तो अच्छी है, पर ये काम लड़कों का थोड़े ही

सहसा जय ने फिर टोका. सामने रखी है...” उस वक़्त कहीं न कहीं उसके दिमाग़ चाय का प्याला मुंह से लगाया, तो अ में ये बैठ गया, अनुज लड़का है और ये काम उसका नहीं है.

याद आयी... वह दो कप चाय परफेक्ट बनाता है. काश! जैसे उसे चाय बनाना सिखाया, वैसे ही खाना बनाना भी सिखाया होता.

अनुज के हाथों की चाय की चर्चा उसे १०-१२ वर्ष पीछे ले गई, जब वह १०-१२ वर्ष का था. वह बाहर से थककर आती, तो

कमोबेश यही बात उसने अपनी बड़ी बहन के घर दोहराई, जब दीदी के बेटे वेदांत को रसोई में दीदी की मदद करते देखा, तो बोल उठी, “क्या दीदी, क्यों इससे लड़कियोंवाले काम लेती हो?"

दीदी ने हंसकर जवाब दिया, “खाना बनाना एक ज़रूरी स्किल है, पता नहीं क्यों आजकल, लड़के-लड़कियां दोनों ही इस महत्वपूर्ण स्किल को एक-दूसरे के पाले में ढकेलकर पल्ला झाड़ लेते है. मेरे हिसाब से तो ये स्किल जेंडर की मोहताज नहीं होनी चाहिए. मैं तो वेदिका-वेदांत दोनों को ही खाना बनाना सिखाऊंगी. कल को कौन जाने, कब इसकी ज़रूरत पड़ जाए. कल को हॉस्टल जाएगा. नौकरी के चलते अकेले रहना पड़ेगा, तब कम-से-कम ज़रूरत पड़ने पर अपना पेट तो भर लेगा. "

"क्या दीदी आजकल हम हाउसवाइफ खाना मेड से बनवा लेती हैं. ये क्यों ख़ुद

मेरे पास होता, तो सिर से चिंताओं का बोझ उतरता.

लॉकडाउन शुरू होने से पहले स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उसने जय से एक-दो बार दबी ज़बान से कहा, “आगे पता नहीं क्या सिचुएशन हो. अनुज को बुला ?"

लें क्या....

“बिल्कुल नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है उसे यहां आने की... इस वक्त जो जहां है, वहीं रहे...."

जय की दृढ़ता देख वह भी चुप रह गई ... उनकी बात भी ग़लत नहीं थी. कोरोना जिस तरह से फैल रहा था, उसमें एयरपोर्ट जाना

करो... पर किस बूते पर कहती. उसके लिए ये कार्य रॉकेट साइंस जैसे दुष्कर थे.

वैसे भी वह कितना आराम तलब है. आज क्या खाना बना है, ये भी उसे नहीं पता होता.

" तुम्हारी अक्का आज क्या बना गई... " जब पूछो तब जवाब मिलता, "पता नहीं, अभी देखूंगा..."

“तुम उससे अपनी पसंद का कुछ नहीं बनवाते क्या...” वह कहती तो बोलता, “मुझे बताना नहीं आता कि आज ये बनाओ.. वो बनाओ... खाने का मेनू डिसाइड करना सबसे

मुश्किल काम है. चीज़ों की अवेबिलटी देखकर वो एकाध ऑप्शन देती है,

देता हूं...”

बस मैं

अप्रूव कर

ऐसा बोलनेवाला अनुज लॉकडाउन के समय कैसे और क्या और खाएगा...?

बनाएगा स्टेज टू से थ्री में कोरोना के पहुंचने की ख़बर सुनकर एक दिन दिल कड़ा करके कहना ही पड़ा, “अनुज, कुछ दिनों के लिए अपनी अक्का को छुट्टी दे दो... कैसे भी हो अब संभालना ख़ुद ही पड़ेगा.”

"अच्छा...” उसने बड़े धीमे से सुस्त स्वर में कहा. उसकी मजबूरी और भय को मानसी समझ रही थी. आख़िरकार उसे ये फ़ैसला लेना ही पड़ा. अक्का नहीं आएगी. बाहर से खाना मंगवाने का ऑप्शन भी नहीं है, सो अब क्या बनाएगा...?” कहते हुए उस वक़्त कभी नहीं और यहां नोएडा आना ख़तरे से खाली नही होगा ? वह घबराया पर उसने उसका ख़ूब

सोचा था कि इन सुविधाओं पर ताला लग सकता है. लॉकडाउन में पैसे होने के बावजूद सुविधा सम्पन्न लोग भी अपना काम स्वयं करने को मजबूर होंगे.

जो जहां है, वहीं थम जाएगा... तब ये स्किल ही काम आएगी. कुकिंग वास्तव में सर्वाइवल स्किल के रूप में उभरेगी.

काश! उसने अपनी बड़ी बहन की सीख समझ ली होती. अनुज से घर में खाना भी बनवाया होता, तो आज इस आपात स्थिति में चिंता के मारे वह मरी न जाती. मन में ग्लानि उठती. कितने बच्चे समय रहते अपने माता-पिता के पास आ गए. अनुज भी था. इतनी स्थिति बिगड़ जाएगी, ये भी तो नहीं सोचा गया था. लॉकडाउन के बाद तो रातों की नींद गायब हो गई थी.

“मम्मी, चिंता मत करो, अक्का पास ही रहती है, वो आकर खाना बना रही है...' अनुज की तसल्ली से भी जान सांसत में पड़ी जान पड़ती, लॉकडाउन में उसे घर बुलाना न केवल उसकी अक्का के लिए, वरन अनुज के लिए भी जोखिम भरा था.

बेटे में घर का काम संभालने का आत्मविश्वास होता, तो कब का कह देती कि अब बाहरी प्रवेश पर प्रतिबंध लगाओ... ख़ुद खाना बनाओ, घर संभालो, झाडू-पोंछा उत्साह बढ़ाया.

घर में कौन-कौन से मसाले हैं.... कौन-कौन सी दाल - सब्ज़ी है, इसका पता करके फोन पर ही उसे निर्देश देना आरंभ किया. दाल-चावल तो किसी प्रकार बन गया, पर रोटी तो उससे बनी ही नहीं. कभी आटा गीला, तो कभी रोटी बेल ही नहीं पाया. जो बेली, तो जल गई. वो फोटो भेजता, तो मन रो देता. यूट्यूब देखकर उसने आटा गूंथना सीखा और बेलना भी. सब्ज़ियों के मामले में यूट्यूब फेल हुआ. कारण इतनी सामग्री बताते थे कि उनकी अनुपब्लधता ही रहती. फोन पर ही निर्देश देना सही लगा... वो स्पीकर पर फोन रख देता और वह एक-एक चरण बताती जाती... और वह अनुपालन करता. उफ़! कितना मुश्किल था. रोटी-परांठे के वीडियो अपलोड किए गए. ज़रूरत सब करवा लेती है, सो खाना बनाना सीखना भी अपवाद न रहा.

फिर एक दिन वह बोला, “मम्मी, अब से सुबह का मैं और शाम का खाना शैली बनाएगी. तब तक, जब तक हम दोनों कुकिंग में परफेक्ट न हो जाएं..." इस पर उसे थोड़ा चैन आया. एक से भले दो थे. सबसे बड़ी बात यह थी कि एक लड़की होने के नाते शैली ठीक-ठाक खाना बना लेती थी. अनुज से बेहतर किचन मैनेज कर पाती थी, पर शैली अच्छा खाना बना लेती है, यहां ये जेंडर के आधार पर तय करना क्या सही था.

शायद उसने घरेलू कामों का प्रबन्धन अनुज से बेहतर सीखा होगा. मानसी को अपनी सहेली सरल की याद आई. एक दिन उसका फोन आया, वो बहुत दुखी और डरी-सी लग रही थी, “मानसी, इस मुए कोरोना ने तो आफत कर दी ... स्वाति को तो मैगी भी ढंग से पकानी नहीं आती है. अब उसे फोन पर सिखा रही हूं, तो इरीटेट हो जाती है. कहीं डिप्रेशन में न चली जाए..."

सरल की बात सुनकर उसे वो पल याद आए, जब सरल गर्व से अपनी गोल्ड मेडिलिस्ट पढ़ाकू बेटी को देख कहती, “वो ज़माना गया, जब लड़कियों को रोटी बेलना सिखाया जाता था. आजकल और बहुत कुछ है सीखने को..."

लड़कियों को भी खाना बनाना आना चाहिए, यह कहकर कोई भी ख़ुद पर पुरातन पंथी का ठप्पा नहीं लगवाना चाहता. अपनी मम्मी की विचारधारा से प्रभावित स्वाति ने इसे निकृष्ट कार्य समझा और यदा-कदा उत्साह से कह उठती, “आई हेट कुकिंग..."

कल सरल से बात हुई, तो दुखी होकर कहने लगी, “स्वाति बहुत परेशान हो रही है. बात करके मेरा तो मूड ही ऑफ हो गया. मुझसे कहने लगी कि कुकिंग तो सर्वाइवल स्किल है. इतनी ज़रूरी स्किल आपने कैसे नहीं सिखाई! आजकल के बच्चों को तो देखो,

चित भी मेरी और पट भी..."

सरल को पछतावा था कि स्वीमिंग, कराटे, डांस के साथ मैंने उसे कुकिंग क्यों नहीं सिखाई... वहीं जब जीजी से बात हुई, तो वह लॉकडाउन और वेदांत को लेकर निश्चिंत थीं. हंसती हुई कहने लगीं, “मानसी, वेदांत तो मस्त है. एक दिन मुझसे कह रहा था कि क्यों न इस लॉकडाउन के बाद मैं अपना करियर ही चेंज कर लूं. शेफ बन जाऊं.”

बेशक वेदांत ने मज़ाक किया होगा, पर उसका यह हुनर इस वक़्त काम आ रहा है. इस वक़्त वेदान्त ख़ुश है... दीदी को चिंता नहीं है कि कैसे मैनेज करेगा, पर उसे अनुज की चिंता है. सरल को स्वाति की चिंता है.

अभी इन परिस्थितियों में फंसकर बच्चे इस स्किल के महत्व को समझ रहे हैं. कैसे माता-पिता इतनी ज़रूरी ट्रेनिंग देने से बच्चों को चूक गए. वह स्वयं चूक गई. काश! वह अनुज को घरेलू काम करने की ट्रेनिंग देती... खाना पकाने में इतना आत्मविश्वास तो होता कि वह आज अपरिहार्य स्थिति में ख़ुद को मजबूर न समझता... बेटियां आज अंतरिक्ष में जा रही हैं. ऐसे में कोई उन्हें घरेलू काम सिखाने के पक्ष में हो, तो वह पिछड़ी सोच

का कहलाएगा.

बेटा लड़का है. घरेलू काम करते वो कहीं अच्छे लगते हैं... वह हंसी का पात्र

बन जाएगा...

इन ग़लत धारणाओं के बहाव में बच्चों को उस स्किल से दूर रखा गया, जिनमें पारंगत होना अति आवश्यक है. पूर्वाग्रहों के चलते आज कितने बच्चे समस्याओं के समंदर में फंस गए. शायद आज ये कठिन समय बहुत-सी धारणाओं को तोड़ने के लिए ही आया है... कुकिंग वाकई रॉकेट साइंस नहीं है और वह पिछड़ेपन की निशानी भी नहीं है.

अपना काम करना... झाडू-पोंछा, साफ़-सफाई, खाना बनाना... ये सब ऐसी स्किल्स हैं, जिन्हें आज की चुनौतियां सिखा ही देंगी. लोगों की मानसिकता भी आज की कठिन परिस्थितियां बदल ही देंगी...

“अरे देखो, तुम्हारे बेटे ने क्या बनाया है..." सहसा जय उत्साह से

मोबाइल दिखाते उसके पास आए, तो वह सोच-विचार त्यागकर मोबाइल पर अनुज के भेजे चित्र देखने को तत्पर हो गई, एक थाली में बड़ी-सी पूरी, साथ में आलू-टमाटर की सब्ज़ी और बूंदी का रायता. वह ज़ूम करके प्लेट में रखे भोजन को देखने लगी. आलू-टमाटर की सब्ज़ी अच्छी लग रही थी. पूरी थोड़ी मोटी कुछ भटूरे के आकार की थी, पर जो भी था, स्वादिष्ट लग रहा था... "कैसा लगा खाना ?"

अपनी उत्सुकता को वॉट्सअप पर भेजा, तो त्वरित उत्तर आया, “बढ़िया.”

“शाबाश!” एक किसिंग इमोजी के साथ उसने भेजा.

"यार पूरी - सब्ज़ी देखकर भूख लगने लगी. तुम भी खाना लगा दो..." जय बोले, तो उसे भी सहसा भूख का एहसास हुआ. आज वह ख़ूब अच्छे से खाएगी. यह सोचते हुए वह खाना लगाने लगी. दाल-रोटी का कौर तोड़कर मुंह में डाला, तो मोटी-सी गद्देदार पूरी और आलू-टमाटर का स्वाद घुला लगा.

इस कोरोना ने बहुत सिखाया और बहुत सिखाएगा... अनुज की बनाई पूरी भी एक दिन पूरी जैसी बनेगी. एक दिन बिना उससे रेसिपी पूछे वह अपने लिए खाना बनाएगा, और कहेगा... आपने क्या बनाया? मैंने तो

आज ये बनाया. आप खातीं, तो उंगलियां चाटती रह जातीं. यह विचार आते ही उसके होंठों पर मुस्कान दौड़ गई और मन सुकून से भर गया.


कहानी

लव में थल

आज ऑफिस में इतना सन्नाटा क्यों है भई ? कोई मर गया क्या ?”

आम चिकते हुए अपने प्रोजेक्ट पार्टनर विशाल से पूछा.

“किसी के मरे पर ऑफिस ऐसे सजेगा क्या? बावलेपने की बात करते हो... ज़रा चारों ओर नज़रें घुमाकर देखो... पता चल जाएगा, सन्नाटा क्यों है?"

क्यों देखूं? उसी सजावट की खुन्नस तो बाहर निकाली थी अभी. नहीं देखनी थी मुझे वो सब बकवास चीजें... यहां-वहां बिखरे दिलनुमा लाल गुब्बारे, लाल रिबन की लड़ियां, हर केबिन के फूलदान में सजे लाल गुलाब...

“अरे शुक्लाजी जानते नहीं क्या, आज वैलेंटाइन डे है.” मेरा चिढ़ा ख़ामोश चेहरा देख विशाल ने ज्ञान बघारा. सुनकर मन किया दो लाल गुब्बारे उठाऊं, उसके गालों पर पिचकाकर ठां से फोड़ दूं और फिर कहूं, 'हमें अनाड़ी समझे हो क्या ?' मगर वो अपनी धुन में बोला जा रहा था.

आज ऑफिस से आधे से ज़्यादा जनता गायब है. सारे बाहर जाकर अपने-अपने वैलेंटाइन के साथ आंखें चार कर रहे हैं और हमारी तरह जिनका कोई नहीं... उनको बॉस जाते हुए एक्सट्रा काम चेप गए हैं.

बॉस भी गायब हैं... मगर वो तो शादीशुदा हैं? मुझे हैरत हुई, क्योंकि मेरी समझ से वैलेंटाइन डे जैसे चोंचले अविवाहितों द्वारा ही उठाए जाते थे.

“हां, तो अपनी बीवी के साथ मना रहे हैं ना... उनकी सेक्रेटरी बता रही थी, ऑफिस पहुंचे ही थे कि बीवी का धमकीभरा मैसेज आ गया, या तो आज चुपचाप मेरे साथ वैलेंटाइन मनाने बाहर चलो, वरना इस साल से करवा चौथ रखना बंद कर दूंगी..."

कहकर विशाल हंसने लगा, मगर मेरे मुंह से झूठे भी हंसी नहीं फूटी. अरे जब इन आशिकों के अब्बाओं को ऑफिस में रुकना ही नहीं था, तो यहां ऐसी सजावट क्यों करवा गए? हम जैसे सिंगल के जले पर नमक छिड़कने को ? मेरी चिढ़ हद पार करती जा रही थी.

तभी दो जूनियर स्टाफ ऑफिस में दाखिल हुई. वो भी लालमलाल हुई पड़ी थीं, लाल स्कर्ट-टॉप... लाल लिपस्टिक, झुमके, सैंडल... जिधर देखा बस लाल ही लाल. उन्हें देख पलभर को मन किया स्पेन में बुल फाइटिंग करनेवाला सांड बन जाऊं, दोनों को अपने सिंगों से हवा में इधर-उधर उड़ा दूं... मैंने महसूस किया कि वाकई गुस्से से मेरे नथुने सांड की तरह फूलने लगे हैं... इससे पहले कोई खून-ख़राबा हो, मैंने झट से बोतल उठाई और गट से ढेर सारा पानी पी लिया.

“यार एक बात बताओ, अगर आज ये दोनों लाल की जगह कोई और रंग पहन लेतीं, तो क्या इनका वैलेंटाइन व्रत भंग हो जाता? सुबह से हर जगह इस लाल रंग की सूनामी आई पड़ी है. सच कहें ये सब देख-देखकर जी मिचलाने लगा है, उल्टी आने को हो रही है...” कंप्यूटर ऑन करते हुए मैंने भड़ास निकालना जारी रखा.

“भाईजान तबीयत लालपन से नहीं, बल्कि अकेलेपन से ख़राब हो रही है आपकी... अगर आज कोई ख़ूबसूरत वैलेनटनिया साथ होती, तो आप भी लाल रंग में रंगे हुए लव बर्ड बने कहीं उड़े फिर रहे होते ...” उसकी बात पर मैं तिलमिला कर रह गया. वैसे एक बात तो तय है, दूसरों की दुखती रग को और दुखाने में जो आनंद है, वो शायद दुनिया की किसी प्राप्ति में नहीं है. विशाल का खिला चेहरा इसी बात की गवाही दे रहा था.

कड़वी थी, मगर बात सही थी. यही तो कारण था मेरे ग़ुस्से का, मेरी चिढ़ का... कि इस वैलेंटाइन पर भी पिछले तमाम वैलेंटाइन डे की तरह मेरा स्टेटस सिंगल का सिंगल ही था. २९वां लगते ही अब तो ये हालत हो गई थी कि दिल जब-तब गुनगुनाता रहता, 'पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही...'

कभी-कभी एक छोटी-सी चाहत हमारे लिए बड़ा अभिशाप बन जाती है... मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. वैसे मैंने चाहा भी क्या था खुदा से ... उसकी कायनात तो नहीं मांग ली थी, बस इतना ही चाहा था कि अपनी जीवनसंगिनी का हाथ घरवालों द्वारा थोपी गई अरेंज मैरेज से नहीं, बल्कि लव मैरेज कर अपनी पसंद से थामूंगा ... चाहता था एक बार मैं भी किसी से प्यार भरे रिश्ते में बधूं, रोमांस के समंदर में डूबूं, तरूं... और एक दिन उसके साथ प्रेम की लहरों पर सवार हो पार लग जाऊं.

कोई ग़लत इरादा नहीं था मेरा. बस थोड़े समय के लिए ही सही, ख़ास महसूस करना चाहता था... किसी फिल्मी रोमांटिक हीरो जैसा... चाहता था कोई हो, जिसे मेरा साथ होना सुकून से भर दे और मुझसे दूरी बेचैनी से ... और ऐसा नहीं कि मैंने कोशिशें नहीं कीं, बहुत कोशिशें कीं, मगर कहते हैं ना, समय से पहले और क़िस्मत से ज़्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता.... शायद इसीलिए मुझे भी नहीं मिला था. दिन खिसकते, सरकते शाम के पहलू में सिमटने लगे. औरों के लिए बेहद रूमानी, मगर मेरे लिए कितना उदास, कितना स्याह था वैलेंटाइन डे की ढलती शाम का मंजर... मैं ऑफिस की बिल्डिंग के टॉप फ्लोर पर बने कैफे से अपने कॉफी का मग उठाकर बाहर रेलिंग पर जा खड़ा हुआ. बीसवीं मंजिल की ऊंचाई से नीचे चलनेवाले लोग कितने अदना लग रहे थे, जैसे उनका कोई अस्तित्व ही ना हो... और भगवान तो शायद बहुत दूर आसमान में रहता है ना... तो क्या उसे मैं, मेरा दर्द दिखाई देता होगा या उसके लिए मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है? मेरा बुझा-बुझा - सा दिल ना जाने क्या-क्या सोचकर ख़ाक हुआ जा रहा था. तभी आसपास बहती भीनी-भीनी लेडीज़ परफ्यूम की महक ने मेरा ध्यान खींचा. एक लड़की मुझसे थोड़ा दूर रेलिंग पर आ खड़ी हुई थी. आसमानी रंग का चूड़ीदार पहने, एक हाथ में चाय का कप थामे और दूसरे हाथ से हवा में अठखेलियां करते नीले- सफ़ेद लहरिया दुपट्टे को संभालने की कोशिश करते हुए वो बेहद हसीन लग रही थी. मैं उसे कुछ पल यूं ही निहारता रहा.

टैरेस के इस छोर पर हम दोनों के बीच चल रहा यह दृश्य अगर किसी फिल्म में होता, तो बैकग्राउंड में ज़रूर वायलिन पर कोई मधुर धुन बज रही होती. उसका उड़ता दुपट्टा और उसे समेटने की कवायद के बीच कनखियों से मुझे देखने की अदा स्लोमोशन में दिखाई जाती और मेरे दिल में उठ रहे नाज़ुक एहसासात को उकेरने के लिए भी किसी-

-न-किसी विज़ुअल तकनीक का ज़रूर इस्तेमाल किया जाता... मगर अफ़सोस, ये हक़ीक़त थी. मेरी हक़ीक़त ये थी कि मुझे उससे पहली नज़र में प्यार जैसा कुछ हो गया था. पता नहीं ये वैलेंटाइन डे का असर था या मेरे अकेलेपन के एहसास का, उसे देख मेरे सूने बदरंग दिल पर कुछ रंगीन लहरें आकार लेने लगी थीं... ठीक उसके लहरिया दुपट्टे की तरह...

आख़िरकार उसने बड़े जतन से हवा में उड़ते दुपट्टे को अपनी बांह में लपेट लिया, मगर बाल अभी भी कभी माथे से, कभी हवा से, तो कभी झुमकों से जैसे पकड़म-पकड़ाई का खेल खेल रहे थे. उसने आज लाल रंग नहीं पहना और यहां अकेली खड़ी है, बस यही काफ़ी था मेरे विश्वास को मज़बूत करने के लिए कि वो भी मेरी तरह सिंगल है. मगर एक बात जो मुझे हजम नहीं हो रही थी, वो ये कि वह सुकोमल कन्या मुझे देख ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे कोई परिचित हो, मुझे जानती हो और मुझसे बात करना चाह रही हो...

उसकी ये परिचित नज़र मुझे असहज कर गई. पिछले कुछ बुरे अनुभवों के आधार पर मन कहानियां बनाने लगा, कहीं ये मुझमें अपना टैम्प्रेरी वैलेंटाइन तो नहीं ढूंढ़ रही है... एक शाम भर का मन बहलावा, महज़ टाइमपास... माना मैं छह-सात सालों से मेट्रो सिटी में था, मगर मेरी जड़ें अभी भी कस्बाई ज़मीन में फैली थीं, जो रिश्तों के नाम पर ऐसे खिलवाड़ की सख़्त विरोधी थीं. मैं थोड़ा अचकचा गया और उससे नज़रें फेर खड़ा हो गया.

" एस्क्यूज़ मी, आप दिनेश शुक्ला हैं ना, कृष्णचंद्र शुक्ला के भतीजे .. ?” एक मीठी आवाज़ सिरहन बन मेरे शरीर में फैल गई. ये तो वाक़ई परिचित निकली यानी वो नज़र बुरी नहीं थी. मैं पलटा और ख़ुद को बमुश्किल संभालते हुए बोला, “जी, आप जानती हैं मुझे ?”

“सीधे तौर पर तो नहीं, मगर आपके कानपुरवाले चाचाजी हैं ना, कृष्णचंद्र शुक्ला... वो मेरे अंकल हैं, मेरे पापा के बहुत अच्छे दोस्त... पिछली बार जब वो घर आए थे, तो मैंने उन्हें बताया था कि मेरी नोएडा में जॉब लगी है, तब उन्होंने आपका फोटो दिखाकर आपके बारे में बताया था कि आप भी नोएडा में जॉब करते हैं.” उसने सहजता से मुस्कुराते हुए कहा, मगर मेरा दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था, जैसे अभी बाहर निकल गिर पड़ेगा.

"आप?" आगे के शब्द मेरे हलक में ही अटके रह गए. “मैं सौम्या, इसी बिल्डिंग में थर्ड फ्लोर पर जो कंपनी है, मैं वहां एचआर मैनेजर हूं. पिछले महीने ही ज्वाइनिंग हुई है. " "सौम्या..." मैंने भीतर ही भीतर इस नाम को मंत्र की तरह दोहराया. “आपने एक बार फोटो देखकर पहचान लिया मुझे?"

"जी, दरअसल मैंने आपको पहले भी यहां कई बार देखा है... कभी लिफ्ट में, कभी कैंटीन में... बस, बात आज हो पाई है..." वो जैसे कुछ पूछते हुए रूक गई. फिर थोड़ा संभलकर बोली, “आपने मुझे पहले कभी नहीं देखा... कभी मेरा कोई फोटो या मेरे बारे में कोई ज़िक्र हुआ हो..?" मैं दिमाग़ पर ज़ोर डालने लगा, इसकी फोटो... भला मैं क्यों देखने लगा ? चाचाजी भी कभी कोई ज़िक्र नहीं किया...

“चलिए छोड़िए, यूं ही पूछ लिया था. " उसने कहा तो मैं अतीत को छोड़ वर्तमान में आ गया, जहां मेरे सामने एक हसीन सपना चल रहा था.

उसके बाद हमने इधर-उधर की ढेर सारी बातें कीं... कुछ उसके कानपुर की, कुछ मेरे कस्बे बुढ़ाना की और कुछ इस नोएडा नगरी की. पहली मुलाकात में ही हम अच्छे-खासे बेतकल्लुफ़ हो चुके थे. मुझे यक़ीन हो चला था, उससे ये मेरी पहली मुलाक़ात नहीं है, कभी किसी जन्म में कुछ तो रहा होगा हमारे बीच, वरना कोई पहली मुलाक़ात में इतना ख़ास, इतना अपना कैसे लग सकता है? उसके साथ गुज़रता एक-एक लम्हा मेरे दिल पर अपनी तहें जमा रहा था.

काफ़ी देर साथ बैठ, एक- - दूसरे से फोन नंबर एक्सचेंज कर और फिर मिलने का वादा कर हमने अपनी-अपनी राह ले ली. मैं रोज़ की तरह ऑफिस से घर आ गया था, मगर अकेले नहीं... वो एक मीठा ख़्वाब बन मेरे साथ चली आई थी. अगली शाम हम दोनों एक बार फिर कैफे में एक-दूसरे के साथ बैठे थे और फिर तो ये रोज़ का सिलसिला हो गया था. ऑफिस के बाद घर की राह पकड़ने से पहले ढलती शामों के कुछ हिस्सों को साथ-साथ जीना..... की घूंट के संग आहिस्ता-आहिस्ता पीना.

चाय चंद मुलाक़ातों में बहुत कुछ जान गया था मैं उसके बारे मैं... जैसे उसका मन शीशे-सा पारदर्शी है, कोई बनावट नहीं... ना बातों में, ना भावों में, ना व्यवहार में ... बिल्कुल एक निर्मल नदी -सी बहती वो और उतनी ही पाक़ उसकी आंखें, जिनमें मैं डूबता जा रहा था. आज जब मैं सोच ही रहा था कि उससे अपने दिल की बात कह दूं, तभी उसके एक सवाल ने मुझे घेर लिया. “इफ यू डोंट माइंड, एक बात पूछूं?”

“कहिए.”

“आपको अरेंज मैरेज से क्या प्रॉब्लम है.” मैं चुप रहा, तो उसने आगे कहा, “दरअसल, आपके चाचाजी ने बताया था कि आपके लिए रिश्ता खोजने में आपके घरवालों

ने कैसे जी जान लगा दी, मगर आप तैयार ही नहीं हुए..."

"हां वो तो है... ज़रा आप ही बताइए आजकल कौन अरेंज मैरेज करता है... अब वो ज़माना नहीं रहा कि जिसके साथ माता-पिता ने बांध दिया, बस पूरी उम्र के लिए बंध गए...” मैं उसकी आंखों में लव मैरेज का समर्थन तलाशने लगा.

“हां, मैं मानती हूं, वो ज़माना नहीं रहा, मगर आजकल पैरेंट भी ज़ोर ज़बर्दस्ती कहां करते हैं .. ? उस सिस्टम में भी पहले लड़का लड़की मिलते हैं, एक-दूसरे को जानते-समझते हैं, तभी कोई फ़ैसला लेते हैं ना... तो फिर इसमें बुरा क्या है ? "

बात तो सही थी, मगर मैं अपने इतने सालों के अटल विश्वास को कैसे बिखरने देता, इसलिए अपना पक्ष रखना ज़ारी रखा.

“लव मैरेज में थ्रिल होता है, अरेंज मैरेज में नहीं... और वैसे भी कहते हैं ना, प्रेमियों के जोड़े भगवान बनाता है.” सुनकर सौम्या हंस पड़ी.

"बड़ी अजीब बात है, आप उस भगवान पर विश्वास कर सकते हैं, जिसे आपने कभी नहीं देखा, मगर अपने पैरेंट्स पर विश्वास नहीं कर सकते, जिन्होंने आपको जन्म दिया, पाला-पोसा, बड़ा किया..." इस बार मेरे पास कोई तर्क, कोई पक्ष नहीं बचा था. मेरी नज़रें झुक गईं और मन में विश्वास जम गया कि अगर इस लड़की को जीवनसाथी बनाना है, तो चाचाजी के माध्यम से अरेंज मैरेज के रास्ते ही जाना पड़ेगा.

'लगता है आप तो अरेंज मैरेज ही करेंगी?” मैंने सवाल की दिशा मोड़ी.

"ऐसा कुछ ठान कर नहीं रखा है, किसी से प्रेम होता, तो लव मैरेज भी कर लेती, मगर नहीं हुआ तो अरेंज मैरेज से भी परहेज नहीं है... वैसे बात चल रही है एक जगह, इसीलिए इस वीकेंड घर जा रही हूं... देखते हैं क्या होता है.” उसने लजाते, मुस्कुराते जैसे ही यह सूचना दी, मेरे ऊपर कयामत टूट पड़ी. जिस लड़की का डीपी देख-देख कर आजकल रातें गुज़र रही थीं, वो किसी और की हो सकती है, इस पीड़ा से मेरा कलेजा जल उठा.

अब कुछ कहने-सुनने की हिम्मत नहीं बची थी. अब बस एक ही उम्मीद बाकी थी, चाचाजी. मन-ही-मन सोचने लगा, आज ही चाचाजी से सौम्या के लिए अपनी बात चलाने को कहूंगा. चार दिन ही बचे हैं वीकेंड आने अगर उससे पहले कुछ हो जाए तो...

में...

मैं एक ज़रूरी काम का बोल वहां से उठ गया और घर आकर सबसे पहले चाचाजी को फोन किया. मैंने उनको बिना लाग लपेट के सारी बात बता दी और साथ ही ये भी कह दिया 'मेरी ज़िंदगी की नैया अब उनके हवाले है...' इतना कहते ही उनकी तरफ़ से जो झाड़ पड़ी, क्या बताऊं....

“आज मजनूं बने बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो और जब इसी लड़की का फोटो और बायोडेटा भिजवाया था, तब क्या हुआ था... तब तो नज़रभर देखना गवारा नहीं था तुम्हें?”

“क्या... सौम्या की फोटो और बायोडेटा ! ” ये बात सुन मेरे ऊपर जैसे बिजलियां गिर पड़ीं. ऐसा पाप, ऐसा गुनाह मुझसे कब हो गया? और इसके लिए मैं किसी और को दोषी भी तो नहीं ठहरा सकता था... कितनी बार मैं घरवालों के जुटाए फोटो - बायोडेटा को मनगढंत बातें बनाकर बिना देखे ही मना कर दिया करता था... गुनाह तो मुझसे हुआ है, मगर क्या इसकी कोई माफ़ी, कोई प्रायश्चित नहीं है? मैं अपनी ईगो ताक पर रख मिन्नतों पर उतर आया, तब जाकर चाचाजी का सुर थोड़ा नरम हुआ.

"देखो बेटा, मैं उसका रिश्ता लेकर आया था और तुम्हारी ना होने पर मैंने उन्हें बहाने बनाकर मना कर दिया और अब जहां उसकी बात चल रही है ना, वो भी मेरा ही सुझाया हुआ रिश्ता है... बहुत भले लोग हैं, लड़का भी हीरा है... अब मैं कुछ नहीं कर सकता. हां, बस इतना कर सकता हूं कि कोई और अदद लड़की नज़र में आए, तो तुम्हारी बात वहां बात चला दूं... वो भी तब जब तुम्हारे दिमाग़ ठिकाने हों.”

चाचाजी ने मेरे मन का बोझ बढ़ाकर फोन रख दिया. कभी सुना था प्रेम सुख का रूप धरे दुख का नाम है, आज इसे महसूस भी कर लिया था. मेरी रातों की नींद, दिन का चैन इस एकतरफ़ा इश्क़ की बलि चढ़ चुके थे. अब इतना तय था कि जो करना था, मुझे ही करना था. मैंने निश्चय किया, चाचाजी चाहे जो सोचें और सौम्या चाहे जो कहे, मैं एक कोशिश तो ज़रूर करूंगा. चार दिन बाद मैं पगलाया-सा सौम्या के घर के बाहर खड़ा हुआ डोरबेल बजाने की हिम्मत जुटा रहा था. तभी ऊपर बालकनी से सौम्या ने मुझे देख लिया. वो भागकर बाहर आई और मुझे अपने घर की एक तरफ़ धकेल दिया. शायद वो मुझे अपने घरवालों की नज़रों से बचाना चाहती थी. मैंने उसे नहीं बताया कि मैं डोरबेल बजा चुका हूं.

“यहां क्या कर रहे हो... मेरा पीछा ... ?” उसकी घबराई आंखों में ढेरों सवाल थे.

“नहीं तुमसे नहीं, तुम्हारे पापा से मिलने आया हूं.” मैंने सहजता से जवाब दिया.

“क्यों?”

“ तुम्हारा हाथ मांगने, यही तरीक़ा पसंद है ना तुम्हें... अरेंज मैरेजवाला.” मैंने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा. वो कुछ देर के लिए सन्न खड़ी रह गई.

“तुम जानते हो ना, कल कोई मुझसे मिलने आ रहा है..." “जानता हूं, इसीलिए तो मैं आज पहले आ गया.”

"मगर तुम ये नहीं जानते, मैं भी उसको पसंद करती हूं और उसी से शादी करने का इरादा किया है... "

"क्या!” सौम्या ने जैसे मेरे दिल पर खंजर भौंक दिया था. मैं इस वार से संभल भी ना पाया था कि किसी ने भीतर से दरवाज़ा खोला. उसके पापा थे. मुझे सौम्या के साथ खड़ा देख थोड़ा अचकचा गए. “तुम..." शायद मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे. “पापा, ये शुक्ला अंकल के भतीजे ... नोएडावाले...” सौम्या ने हिचकते हुए कहा, तो उसके पापा के माथे पर सलवटें पड़ गईं. 'ओह... हां, मगर तुम तो कल आनेवाले थे, परिवार से कोई नहीं आया?" कह वे मेरे अगल-बगल झांकने लगे. मैं चकरा - सा हुए गया... 'कल... मैं... कैसे? क्या कल मेरा परिवार ही यहां आ रहा था, सौम्या से मिलने... हमारी शादी के लिए?' देखा तो सौम्या मुस्कुरा रही थी.

“बाहर क्यों खड़े हो बेटा, आओ... अंदर आओ.” कहकर उसके पापा अंदर चले गए.

मैं सौम्या के कानों में फुसफसाया, “तुम्हें पता था ये सब ?"

“हां पता था, मगर तुम्हें लव मैरेजवाला थ्रिल चाहिए था ना, बस थोड़ा-सा वही झटका देने की कोशिश की थी, ताकि आगे चलकर दिल में कोई मलाल ना रहे..."

“और अगर मैं ना आता तो ?”

“तो मैं आ जाती.” सौम्या ने शरारत से हंसकर मेरी बांह थाम ली. “बहुत हो गया थ्रिल... अब सीधे शादी.” कहते हुए मैंने अपने कान पकड़ लिए. शादी की डेट अभी फिक्स नहीं हुई, मगर इतना ज़रूर फिक्स है कि अगले वैलेंटाइन डे पर मैं अकेला नहीं रहूंगा.... मैं भी लाल शर्ट पहन, हाथों में लाल गुलाब लिए इतराऊंगा अपनी वेलेनटनिया के साथ...


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